Dharavi Baink :- Web Series :- धारावी बैंक ये वेब सीरीज पर रिव्यू , एक रिपोर्ट ?

कोई भी सीरीज या मूवी को सही ढंग से बनाया जाय तो उसे देखने वाला व्यक्ति उसमें डूब जाता है। परन्तु अगर कोई कमी होती है तो व्यक्ति बोर हो जाता है। या यूँ कहें कि उस को झेलना पड़ता है। पिछले दिनों दो मूवी देखने को मिली जिसमें पहली थी दृष्यम 2 जिस की जितनी तारीफ़ की जाए कम है। और फिर देखने को मिली वेब सीरीज धारावी बैंक जो कुछ समय बाद दर्शकों पर अपनी पकड़ को छोड़ देती है। इसे लम्बा खींचने के लिए कुछ सीन बिना मतलब के डाले गए। जिनका कोई भी महत्त्व नहीं था स्टोरी के अनुसार, बिना मतलब की छेड़-छाड़ से बोरियत होने लगती है।



विवेक ओबेराय और सुनील शेट्ठी से भी बेस्ट नहीं करवा पाए और ओवर रिएक्ट के चक्कर में सब गलत हो गया। एक बात नहीं समझ आई कि प्रदेश की मुख्यमंत्री का पात्र समझ से परे है। क्यूंकि धारावी बैंक से चिढ़ने वाली मुख्यमंत्री को कमिश्नर के प्यार में पड़कर उसकी पत्नी से जलस करते दिखाया गया और फिर अंत में एक फोन काल से वो धारावी बैंक के हक में आ गई। मुख्यमंत्री का पार्ट ही समझ से परे था कि वो विपक्ष पर हावी होना चाहती थी या कमिश्नर को प्राप्त करना चाहती थी। या कमिश्नर को उसकी पत्नी के नजदीक देखकर आम नारी की तरह सौतन से जलस हो रही थी शायद निर्देशक कुछ और करते करते सीरीज से इन्साफ ही नहीं कर पाए। भारतीय नेताओं और विपक्ष का प्रदर्शन समझ से परे था।



इस सीरीज को बनाते शायद दिमाग में क्रूरता, हिंसा और सैक्स का प्रदर्शन ही था इसी कारण से सीन तो हुए परन्तु सही ढंग से फिट नहीं हुए जिसके कारण सब गोबर हो गया और सीरीज बेकार हो गई। जैसे आदमी को काटकर कुत्तों को डालने वाला सीन बार बार रिपीट करने से क्या फायदा इस सीन से एक तो क्रूरता और हिंसा का प्रदर्शन होता था दूसरा विलेन ज्यादा खतरनाक दिखाने के चक्कर में उसकी भूमिका ही गड़बड़ा गई। ऐसा विलेन जो खुद को बचाने के चक्कर में अपने ही फैमिली मेंबर को फांसी देता है। जो फ़ाइल की प्राप्ति के लिए कमिश्नर के लड़के को मार देता है। फ़ाइल तब भी नहीं मिलती। जिस फ़ाइल से उसे खतरा था वो फ़ाइल का न मिलना तो विलेन के लिए कोई समस्या ही नहीं थी। कोई तो अपनी धारावी में सुरक्षित था। इतना खतरनाक व्यक्ति जो कुत्तों को आदमी का मीठ खिलाता है। और कौव्वे से डरता है।



अब क्या क्या लिखें अनुभव की कमी फिल्म में साफ़ दिख रही है। कमिश्नर और डान की टक्कर में बहुत से सवाल सीरीज छोड़ गई। जिसका जवाब पूरी सीरीज को देखने पर नहीं मिलता। हीरो के रूप में विवेक ओबेराय वही पुराने स्टाईल में और विलेन सुनील शेट्ठी डॉन के रूप को जीवांत करने के चक्कर में अपनी भूमिका से न्याय नहीं कर सके। या यूँ कहें कि निर्देशक बेस्ट नहीं करा पाए क्यूंकि उनका ध्यान हिंसा, क्रूरता और सैक्स का मसाला डालने पर था, ना कि सीन सिलैक्शन पर जिससे कहानी जीवांत होती परन्तु कर नहीं पाए।  कृपया कमेंट करें।

 जय हिन्द।

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